kalamgar

Thursday, January 20, 2011

Tuesday, March 9, 2010

हमारे शौक की ये 'इन्तहा' थी
कदम रखा की मंजिल रास्ता थी...

बिछड़ के डार से बन-बन फिरा वो
हिरन को अपनी कस्तूरी सजा थी.....

कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गयी वो चीज क्या थी.....

मैं बचपन में खिलोने तोड़ता था
मिरे अंजाम की वो इन्तदा थी....

मुहब्बत मर गयी मुझको भी गम है
मिरे अच्छे दिनों की आशना थी.....

जिसे छु लूँ मैं वो हो जाए सोना
तुझे देखा तो जाना बददुआ थी.....

'मरीजे-ख़्वाब' को तो अब शफा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी.....!!
-- Javed Akthar

Monday, February 22, 2010

सब से पहले सबसे आखिर मे तो बस इन्सान हू,.....

मे ना हिन्दु, सिख इसाई ना ही मुस्लमान हू,
सब से पहले सबसे आखिर मे तो बस इन्सान हू,
मे समझ पाया ना अब तक मजहबो के दायरे,
हु क्या मे सचमुच मे काफ़िर या अभी नादान हु
मेने जब माकुल समझा तब किय सजदा अता,
पान्च वक्त की नमाजो से अभी अन्जान हु
जब भी सर को है झुकाया, तब हुआ दिदार तेरा
तुझ से मिलने, मन्दिर मे आने से अभी अन्जान हु
धर्म ओर जाति कि जन्जीरो मे, जो केद है नादान वो
किस तरह आज़ाद हो, वो सोचकर परेशान हु
आसमानो ओर चान्द तारो तक पहुन्च कर भी जो,
मझहबो के अन्धेरो से है घिरा,
एस्से इन्सानो को देख कर हेरान हु

अभिनदन

सभि मित्रो का आशिश पुरोहित कि ओर से हार्दिक अभिनदन