Tuesday, March 9, 2010

हमारे शौक की ये 'इन्तहा' थी
कदम रखा की मंजिल रास्ता थी...

बिछड़ के डार से बन-बन फिरा वो
हिरन को अपनी कस्तूरी सजा थी.....

कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गयी वो चीज क्या थी.....

मैं बचपन में खिलोने तोड़ता था
मिरे अंजाम की वो इन्तदा थी....

मुहब्बत मर गयी मुझको भी गम है
मिरे अच्छे दिनों की आशना थी.....

जिसे छु लूँ मैं वो हो जाए सोना
तुझे देखा तो जाना बददुआ थी.....

'मरीजे-ख़्वाब' को तो अब शफा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी.....!!
-- Javed Akthar

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